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कविता

समाप्त

स्नेहमयी चौधरी


पहले कुछ दिनों तक चाहा -
दूसरों के हिसाब से करूँ,
फिर
कुछ दिनों तक चाहा -
अपने हिसाब से करूँ।
अब
कोई भी चाह
क्यों करूँ !


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